शिमला। हिमधरा पर्यावरण समूह द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘बणों हक़ कथारे’ की स्क्रीनिंग का दूसरा चरण 18 नवंबर से शुरू होकर 24 नवंबर तक चला। यह फ़िल्म लाहौल घाटी से जुड़े कई मुद्दों पर प्रकाश डालती है।
इसमे अहम है लाहौल के जनजातीय समाज और उनके जंगलो व प्राकृतिक संसाधनों के बीच जुड़ाव व निर्भरता, जिसे वन अधिकार कानून मालिकाना हक देकर ठोस बनाता है। साथ ही बदलते सामाजिक व आर्थिक परिवेश में इस कानून की प्रासंगिकता अधिक क्यो है, इस सवाल को उभरता है।
घाटी में जंगलो को बचाने की मुहिम में महिला मंडलों के दशकों से चल रहे सफल प्रयासों को सभी के सामने इस फ़िल्म के माध्यम से लाया गया है।
इस चरण में फ़िल्म को शासिन, मूलिंग, तांदी, ठोलोंग, पेमल, शकोली पंचायत, अड़त, किशोरी पंचायत, उदयपुर, सलपट, जसरथ, नालडा, सिन्धवारी, थिरोट पंचायत में दिखाया गया। दोनों चरण मिला कर पूरी घाटी में दारचा से लेकर उदयपुर तक 18 गांवों में फ़िल्म को महिला मंडलो के साथ साथ अन्य गांव वासियों को दिखाया गया।
तांदी गांव के महिला मंडल सदस्य अनिता फ़िल्म से सहमति जताते हुए कहती है कि ‘जंगल तो हम बचा ही रहे हैं लेकिन सच मे अब खेती की ज़मीन बहुत कम बची है लोगो के पास।
अब लाहौल में न तो नौतोड़ से ज़मीन मिल रही है ना वन अधिकार कानून के ज़रिये ज़मीन के पट्टे, ऊपर से डैम बनाने का और चला है बात। उत्तराखंड में देखो अभी 40 से ज़्यादा लोग टनल में फसे है कितने दिनों से, यहां भी ऐसा ही होना डैम बना तो’
जसरथ से महिला मंडल सदस्य शिल्पा ने फ़िल्म व उसके बाद वन अधिकार कानून पर हुई चर्चा से जब जाना कि इस कानून की धारा 3(2) के तहत 13 तरीके की विकास परियोजनाओं पर गांव स्तर पर काम हो सकता है।
तब उन्होंने बताया कि ‘ यहां आंगनवाड़ी वर्कर तो हैं लेकिन आंगनवाड़ी नही। हमे तो पता ही नही था कि इस कानून में DFO स्तर पर परमिशन मिल जाती है। 1 हेक्टेयर तक वन भूमि पर विकास करने की, हर बार पटवारी आके यही बोल कर जाते की पक्का करेंगे, लेकिन फिर कुछ होता नही’।
इस तरह के कई मुद्दे फ़िल्म स्क्रीनिंग के बाद हुई चर्चाओं में निकल कर आये जिनसे पता चला कि कुछ जगह तो इस कानून की बिल्कुल जानकारी नही। जहां थोड़ी बहुत है भी, वहां इस कानून के तहत प्रक्रिया क्या होगी उस जानकारी का अभाव है, तो कुछ जगह कानून की धारा 3(1) के तहत व्यक्तिगत दावों में घर के साथ साथ ज़मीन के दावे प्रशासन कब मंजूर करेगी उसका इंतेज़ार है।
इन सब के बीच जंगलो पर सामूहिक उपयोग व प्रबंधन के अधिकार की बात व समझ निल बटे सन्नाटा जैसी है, जो कि जनजातीय इलाको में बसे समुदायों के लिए सबसे अहम माना गया है।
फ़िल्म स्क्रीनिंग के दौरान हुई चर्चाओं में हिमाचल में इस मानसून में आई आपदा पर भी टिपण्णी करते हुए लोगो ने कहा कि 1979 में लाहौल में भी बहुत बड़ा हिमस्खलन आया था जिसमे 250 से अधिक लोगो की जान गयी।
उस आपदा से सीख लेते हुए हमने लाहौल में जंगल बचाने की मुहिम शुरू की जिससे सकारात्मक परिणाम दिखे और इस तरह का जान माल का नुकसान आगे देखने को नही मिला। इस उदाहरण से हिमाचल के अन्य आपदा ग्रस्त जिले भी प्रेरणा लेकर अपने जंगलो को बचाने की मुहिम शुरू कर सकते हैं, जिससे भविष्य में आपदा के प्रभावों को कम किया जा सके।
इस फ़िल्म को जल्द ही ऑनलाइन प्लेटफार्म पर डाला जाएगा, जिससे अधिक से अधिक लोग इसे देख सकें।
फ़िल्म के बारे में अधिक जानकारी के लिये देखें https://www.himdhara.org/2023/11/02/bano-haqq-kathare/