शिमला म दुनिया के हर धर्म में किसी न किसी रूप में उपवास अनिवार्य माना गया है। उपवास से मानव का शरीर व ह्रदय निर्मल और पवित्र हो जाता है। रोज़ा (उपवास) से इंसान को असीम आत्मिक बल मिलता है।
रमजान का महीना मुस्लिम समाज में बहुत ही पवित्र और आला माना गया है, क्योंकि इस महीने की इबादत जन्म और मृत्यु की यातना से मुक्ति दिलाती है।
रोज़ा आत्म-संयम का एक बेमिसाल और रूहानी अभ्यास है। सब्र रोज़े का दूसरा नाम है और आत्म-संयम जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने का महान साधन। रोज़ा इंसान को भूख-प्यास की शिद्दत पर सब्र करना सिखाता है।
कुदरत ने इंसान को संसार के सभी जीवों में सर्वश्रेष्ठ माना है। इंसान की इसी श्रेष्ठता को बरक़रार रखने और इसमें प्रगति के लिए अल्लाह का बेशक़ीमती तोहफा रमज़ान माह शुरू हो रहा है। रमज़ान महीने के दौरान दुनिया भर के मुसलमान रोज़े अर्थात उपवास रखते हैं।
सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के समय तक कोई भी चीज़ खाई या पी नहीं जाती और पूरा महीना विशेष इबादतें की जाती हैं। रोज़ा इस्लाम मज़हब के पांच स्तंभों में से एक है। 12 वर्ष की आयु से हर मुसलमान के लिए रमज़ान के रोज़े रखना फ़र्ज़ हो जाता है।
रमज़ान के माध्यम से “सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय” के सिध्दांत को समाज में लागू किया गया। रोज़ा सिर्फ भूखा और प्यासा रहने का ही नाम नहीं है। रोज़ा रखना मात्र भूख-प्यास से वंचित रहना बिलकुल नहीं है, बल्कि अपनी निजी ख्वाहिशों पर भी क़ाबू करना है। इससे संयम और त्याग की भावना मज़बूत होती है।
क़ुरआन शरीफ में लिखा गया है कि मुसलमानों पर रोज़े इसलिए फ़र्ज़ हैं, ताकि इस बरक़त वाले महीने में उनसे कोई गुनाह न होने पाए और अपनी कमजोरी को वे अपनी ताकत बना सकें।
रोज़े की क़बूलियत की बुनियाद में पाकीज़गी (पवित्रता) को रख दिया गया जिसमें शारीरिक पवित्रता के साथ साथ विचारों व कर्मों की पवित्रता को भी अनिवार्य किया गया है। रोज़ेदार व्यक्ति तमाम तामसिक प्रवृत्तियों से दूर होकर अल्लाह (ईश्वर) के क़रीब हो जाता है।
हर दिन अदा की जाने वाली पांच वक्त की नमाज़ के अलावा इस माह में तरावीह की विशेष नमाज़ पढ़ी जाती है। तरावीह और शब-ए-क़द्र की पूरी रात की जाने वाली इबादत के दौरान क़ुरआन पढ़ा व सुना जाता है।
क़ुरआन इंसान को ऐसी दृष्टि प्रदान करता है जो हर प्रकार के पक्षपात रहित समाज का निर्माण करे। नैतिक दोषों को दूर कर सदाचार के गुणों का विकास करे, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं:- मां-बाप, रिश्तेदारों, यतीमों, मुसाफिरों और ग़रीबों के साथ अच्छा व्यवहार करो। बुराई को भलाई से दूर करो, इससे शत्रुता ख़त्म हो जाती है।
सब्र करना, अपराधी को क्षमा करना बड़े साहस का काम है। नाजायज़ तरीक़े से दूसरों का माल न खाओ। बे-हयाई से बचो, बुरी बातों के क़रीब न जाओ। अल्लाह के नेक बंदे अपनी बढ़ाई पसंद नहीं करते, न धरती पर बिगाड़ पैदा करते हैं।
उपरोक्त क़ुरआनी शिक्षाओं को अपने दामन में समेटे प्रति वर्ष रमज़ान का महीना यह उम्मीद लेकर आता है कि अहले इस्लाम और समस्त मानव जाति में अच्छाई के मामले में एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा पैदा हो। अच्छाई की इस प्रतिस्पर्धा से इंसान सही मायनों में ख़ुद को “अशरफुल-मखलूक़ात” साबित कर सके।
रमज़ान की पवित्रता को महसूस करने के लिए मुसलमान होना ज़रूरी नहीं है, अगर ज़रूरी है तो वह है उसकी पवित्रता को महसूस करना।
ईद का चांद देखकर जितनी खुशी मुसलमानों को होती है, उतनी ही खुशी अन्य धर्मों के लोगों को भी होती है। अक्सर लोग चांद देख कर एक दूसरे के गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देते हैं। किसी को गले लगाते वक्त कोई धर्म या कोई मज़हब आड़े नहीं आता, क्योंकि खुशियां सबकी साझी होती हैं।
कुरैशी ने सभी को दिल की अताह गहराईयों से रमज़ान-उल-मुबारक की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं दी हैं।
सौजन्य
मुहम्मद शाहनवाज़ क़ुरैशी,
अध्यक्ष : स्ट्रीट वेंडर्स एसोसिएशन ऑफ शिमला