शिमला। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन होना एक आम बात है, क्योंकि पर्वतीय क्षेत्रों की बनावट, ढाल, संरचना, निर्माण, मिट्टी का प्रकार तथा मानवीय हस्तक्षेप इसके लिए कई हद तक मुख्यतः जिम्मेदार होते हैं।
वहीं अगर हम हाल ही के कुछ वर्षों की बात करें तो भारत के इन पर्वतीय क्षेत्रों में विकास जो की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक आधार पर है उसमें अत्यधिक वृद्धि व परिवर्तन देखने को मिला है।
इन विनाशकारी भूस्खलनों के आने के कई मानवीय व प्राकृतिक कारण उत्तरदाई हैं, जैसे कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, राष्ट्रीय राजमार्गों का अवैज्ञानिक निर्माण एवं शहरीकरण, औद्योगिक इकाइयों की स्थापना, पर्यटन गतिविधियां, धार्मिक नगरों में वृद्धि, तटबंध एवं बांधों का निर्माण, अवैध खनन, अत्यधिक वर्षा, जनसंख्या वृद्धि, बादल फटना व अन्य इसके लिए वर्तमान समय में पूर्णतः जिम्मेदार हैं।
इस तरह के विनाशकारी भूस्खलनों के लिए पर्वतीय ढलान, इसकी मिट्टी, व पेड़ों की कमी के कारण, अत्यधिक वर्षा वाले महीनों जिसमें की जुलाई से लेकर सितंबर-अक्टूबर तक दक्षिण पश्चिम मानसून के अत्यधिक सक्रिय होने से इस तरह की घटनाएं सामने आती रही हैं।
इन घटनाओं का एकाएक हो जाने से क्षेत्र विशेष को जान एवं माल का अत्यधिक नुकसान पहुंचता है, इसके अतिरिक्त पर्यावरण व जीव जंतुओं को भी भारी क्षति होती है।
भूस्खलन की दृष्टि से देखा जाए तो भारत में सन 1900 से 2011 तक कुल 6% क्षेत्र इसके लिए संवेदनशील व प्रभावित था। भारत में यदि हम 1947 से 2015 तक के समय में देखें तो इसमें मुख्यतः छह बड़े पर्वतीय भूस्खलन सूचीबद्ध किए गए हैं जिनमें कि असम राज्य के गुवाहाटी में 18 सितंबर 1948 को हुए भयंकर भूस्खलन से लगभग 500 व्यक्तियों की मौत हुई थी।
उत्तर प्रदेश के माप्ला गांव में अगस्त 1998 को लगभग 380 के करीब लोग भूस्खलन की चपेट में मारे गए थे, मेघालय के शिलांग क्षेत्र में वर्ष 2011 में आए विनाशकारी भूस्खलन से 20 लोगों की मृत्यु हुई, उत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र में जून 2013 को बाढ़, बादल फटने व भूस्खलन से लगभग 2000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु दर्ज हुई।
महाराष्ट्र राज्य के मालिन क्षेत्र में 30 जुलाई 2014 को आए विनाशकारी भूकंप से 151 लोगों की मृत्यु दर्ज की गई थी और हाल ही में 30 जुलाई 2024 को केरल राज्य के वायनाड में लगभग 230 लोगों की मृत्यु विनाशकारी भूस्खलन के कारण दर्ज की गई है।
यदि हम हिमाचल प्रदेश जो की एक पर्वतीय राज्य है, की बात करें तो यह भी भूस्खलन के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है और इसमें आए दिन वर्षा ऋतु में कई तरह के बड़े-बड़े भूस्खलन अलग-अलग जिलों में रिपोर्ट किए जाते हैं।
वर्ष 2023 की वर्षा ऋतु के दौरान जिला किन्नौर, शिमला, मंडी, कुल्लू, चंबा, कांगड़ा, सिरमौर व सोलन जिलों में भारी नुकसान देखने को मिला था। यदि हम हिमाचल प्रदेश के सबसे बड़े भूस्खलन की बात करें तो वह 13 अगस्त 2017 को मंडी जिला के कोटरूपी में देखा गया था, जिसमें की लगभग 46 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इतने विशालकाय भूस्खलन के कारण राष्ट्रीय राजमार्ग-154 जो की मंडी को पठानकोट से जोड़ता है, काफी दिन तक अवरोध रहा था।
इस तरह से हम कह सकते हैं कि भूस्खलन जैसी आपदाएं जो कि प्रतिवर्ष मुख्यतः पर्वतीय क्षेत्रों में ही घटित होती हैं जिससे कि जान एवं माल के नुकसान के साथ-साथ ही पर्यावरण को भी भारी नुकसान झेलना पड़ता है तथा राज्य विशेष की आर्थिक स्थिति को भी कमजोर करता है।
भूस्खलन की बढ़ती हुई इन संख्याओं का आंकड़ा दिन प्रतिदिन व प्रतिवर्ष अधिक देखने को मिल रहा है, जिसका मुख्य कारण मानव का अधिक हस्तक्षेप है।
यदि हमें इन भूस्खलन की घटनाओं की आवृत्ति को कम करना है तो हमें अत्यधिक मात्रा में पेड़ पौधे प्रतिवर्ष लगाने चाहिए, पर्वतीय क्षेत्रों में विकास की दृष्टि से राजमार्गों एवं सड़कों का बनना सही है परंतु वह एक सही अभियांत्रिकी, कंटूअर आधारित व वैज्ञानिक रूप से बनाया जाए तो अत्यधिक लाभ होगा।
पर्वतीय क्षेत्रों में भवनों के निर्माण के संबंध में राष्ट्रीय भवन नीति -2016 एवं सरकार द्वारा निर्धारित गाइडलाइन व कानून का सही पालन करते हुए ही निर्माण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हमें अपने समुदाय व आसपास के लोगों को भी इस बारे जागरूक करना अति आवश्यक है, ताकि आने वाले वर्षा ऋतु में या आगामी वर्षों में भूस्खलन जैसी आपदाओं को काम किया जा सके जिससे कि क्षेत्र अधिक खुशहाल व समृद्ध बनने की ओर अग्रसर हो सके।
ऐसे पर्वतीय क्षेत्रों में इस तरह की आपदाओं से बचने हेतु उपाय, विस्तृत योजना, उचित संसाधन व सही रणनीति का प्रयोग कर के हम भारत के इन पर्वतीय क्षेत्रों की सुंदरता को व आपदाओं से समय रहते बचा पाएंगे।
इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार एवं पर्वतीय राज्य सरकारों को भी इस विषय में विशेषज्ञों की टीम द्वारा भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का सर्वेक्षण, आंकलन, एवं समाधान हेतु उचित कदम उठाने चाहिए जिसमें कि विशेष एजेंसियों व विषय विशेषज्ञों की टीम जैसे की भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, तथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान से विशेषज्ञों व वैज्ञानिकों की टीम द्वारा इन विशेष भूस्खलन संभावित क्षेत्रों व स्थलों का निरीक्षण कर उसका उचित समाधान व योजना तैयार करनी चाहिए।
इससे इन क्षेत्रों में रहने वाली जीव प्रजातियां, पर्यावरण, पेड़ पौधे, जल एवं अन्य तरह के पारिस्थितिक तंत्र को सुरक्षित रख पाने में अपना सक्रिय योगदान दे पाने में सक्षम हो पाएंगें।
लेखक
राजन कुमार शर्मा
आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ
डीसी कार्यालय, नाहन