शिमला। 25 से 26 नवम्बर तक गुजरात राज्य के केवडिया में आयोजित 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में “विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य सामंजस्यपूर्ण समन्वय-जीवंत लोकतंत्र का आधार” विषय पर अपने विचार रखते हुए प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष विपिन सिंह परमार ने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीन विशिष्ट अंग हैं।
प्रत्येक अंग के संबंधित क्षेत्र में अपने-अपने कार्य हैं और प्रत्येक अंग को संविधान में शक्ति प्राप्त हैं। संविधान प्रत्येक अंग की भूमिका, कार्यों और सीमाओं को परिभाषित करता है। किसी विशेष अंग में शक्ति केंद्रित न हो इस उद्देश्य से प्रत्येक अंग के अन्त: संबंध नियंत्रण एवं संतुलन हेतु संविधान द्वारा मापदंड निर्धारित किए गए हैं।
परमार ने कहा कि प्रभावी प्रशासन की प्रक्रिया में तीनों अंग स्वतन्त्र कार्य करते हैं तथापि कई कार्यों में वे एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। स्वस्थ परंपरा के लिए तीनों में सामंजस्य होना आवश्यमभावी है।
परमार ने कहा कि तीनों अंगों के मध्य टकराव से न केवल राजनैतिक व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है बल्कि इससे उनकी प्रतिष्ठा तथा विश्वसनीयता भी कम हुई है। इसलिए स्वस्थ परंपराओं को पोषित और विकसित किए जाने की आवश्यकता है ताकि समतावादी समाज की स्थापना से तीनों अंगों में सामंजस्य पूर्ण समन्वय हो।
उन्होंने कहा कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पिरामिड के तीनों किनारों के समान है। जब तक तीनों अंग लोगों की समृद्धि के लिए पूरक संस्थाओं के रूप में सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम नहीं करते तब तक वह हमारे संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकेंगे।
परमार ने अपने संबोधन में कहा कि जन-कल्याण को ध्यान में रखते हुए हम सब मिलकर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सामंजस्यपूर्ण कार्य प्रणाली के लिए परिस्थितियों का निर्माण करें।
इस दृष्टिकोण से निर्दिष्ट कार्यों को करते समय प्रत्येक अंग के बीच किसी भी टकराव का कोई कारण नहीं है क्योंकि तीनों के लक्ष्य समान हैं जो कि समाज के लाभ के लिए संविधान के उद्देश्य को प्राप्त कर रहे हैं।